लिंग निरपेक्ष सोलह सिंगार - कविता
कई महीने पहिले हमने साज सिंगार पर एक कविता लिखी थी। पर वह पारंपरिक बखान और ब्यौरों को लेते हुए भी, थोड़ी - बहुत अपनी कल्पना से ही बनी थी। और अब, हम ख़ुशी से प्रस्तुत करते हैं, पारंपरिक सोलह सिंगार के बूते लिखी हुई एक कविता। इसमें तुक बाँधने पर काफ़ी मेहनत लगी है!
पर पारंपरिक सोलह सिंगार महिलाओं को लेकर है जबकि हमने उसपर कविता लिखकर भी किसी भी लिंग के मनुष्य को बखान समर्पित किया है, क्योंकि समाज के सबसे घिनौने लिंग भेद का विरोध ही होना चाहिए और जिसे जो चाहिए लिंग से निरपेक्ष होकर उसे बेझिझक कर पाना चाहिए।
पर पारंपरिक सोलह सिंगार महिलाओं को लेकर है जबकि हमने उसपर कविता लिखकर भी किसी भी लिंग के मनुष्य को बखान समर्पित किया है, क्योंकि समाज के सबसे घिनौने लिंग भेद का विरोध ही होना चाहिए और जिसे जो चाहिए लिंग से निरपेक्ष होकर उसे बेझिझक कर पाना चाहिए।
पारंपरिक सोलह सिंगारों की एक सूची (इस विषय पर कई विवेचनाएँ और पुरानी पोथियाँ लिखी गई हैं और उनमें अलग सूचियाँ भी मिल सकती हैं):
१. उबटन आदि लेपों को काया पर लीपना
२. नहा - धोकर स्वच्छ होना
३. स्वच्छ और सलोने पहनावे ओढ़ना
४. बाल सँवारना
५. आँखों में काजल की धारें लगाना
६. माँग में सिंदूर भरना
७. तलवों को महावर से लाल रंगना
८. माथे पर बिंदी या तिलक लगाना
९. ठोड़ी पर तिल बनाना
१०. मेहंदी लगाना
११. इत्र - अरगज आदि सुगंध भरना
१२. भाँत - भाँत के गहने पहनना
१३. झौर (फूलों का हार) पहनना
१४. दाँतों को मिस्सी लगाके चमकाना
१५. पान खाकर मुँह को सुगंधित और पान के रंग में रंगना
१६. होंठों को लाल रंगना
अब हमारी कविता पढ़ें :
सोलह सिंगार सजाइकै लार बनायौ ढार बड़ौ मनहार
उबटन लगाए देहहिं लिपाए जल माँहिं न्हाए अंग पखराए
केस कुँ सँवारि बेनी में बारि काजल की कारी आँख पै धारि
माँगहिं उघाड्यौ सिंदूरहिं चाढ्यौ पाँय कों पसार्यौ महावर डार्यौ
ललाट पै बिंद जामिन पै इंद ठोड़ी पै मूँद तिल लाग्यौ बूँद
चीत मेहंदी कौ हाथनि में नीकौ गंध सूँघु दीखी नाहीं जु तीखी
मनियन जड़े आभूसन पड़े गीब परि ठाढ़ी झौर की लाड़ी
माँजिकरि दाँति सेती रची पाँति पान की भाँति भई बदन कांति
होंठ रंग रातौ बरन कौ धातौ अरु गही गातु सुबसन कौ नातौ
या बिध बखानत जो जन जानत लिंग सम मानत साज पिछानत
आस है कि यह आपको भाई हो। पर आपकी राय में और कोई सजावट भली लगे तो उसे भी हम अपने आप में सही ही मानते हैं, प्यारे पाठकजनों, अंतिम पंक्ति को उसके विरुद्ध नहीं समझें!
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© विदुर सूरी। सर्वाधिकार सुरक्षित
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